राज ठाकरे की कहानी: बालासाहेब जैसे दिखे, लेकिन विरासत छिन गई

मुंबई : राज ठाकरे… चेहरा बालासाहेब ठाकरे जैसा, बोलने का अंदाज़ वैसा ही, तेवर भी हूबहू, यहां तक कि कार्टून बनाने का हुनर भी। बालासाहेब भी ठाकरे थे, और राज भी। लेकिन फिर भी, वो ठाकरे विरासत से दूर हो गए।
राजनीति में पहला कदम
साल 1988 में राज ठाकरे ने अपने चाचा बालासाहेब के साथ राजनीति में कदम रखा। उस समय बालासाहेब के बेटे उद्धव ठाकरे भी पार्टी के कार्यक्रमों में दिखाई देते थे, लेकिन वो ज़्यादातर कैमरे के पीछे रहते। धीरे-धीरे उद्धव भी सक्रिय हुए, लेकिन उनका स्वभाव शांत और संयमी था, जबकि राज को चकाचौंध पसंद थी और वो बालासाहेब की तरह आक्रामक भी थे।
राज को शिवसेना की छात्र इकाई भारतीय विद्यार्थी सेना की ज़िम्मेदारी मिली, साथ ही शिव उद्योग सेना की कमान भी दी गई, जो मराठी युवाओं के लिए रोज़गार के मौके तैयार कर रही थी। उसी दौरान 1995 में उन्होंने माइकल जैक्सन को मुंबई बुलाकर एक शो कराया था।
एक घटना ने बदली किस्मत
1996 में एक घटना ने राज की राजनीतिक राह में बड़ा रोड़ा अटका दिया। रमेश किणी नाम के एक व्यक्ति की पुणे के सिनेमा हॉल में रहस्यमयी मौत हो गई। उनकी पत्नी ने आरोप लगाया कि राज ठाकरे के कहने पर उन्हें परेशान किया जा रहा था। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि सीबीआई जांच तक पहुंच गया। राज को क्लीन चिट जरूर मिली, लेकिन उनकी सियासी छवि को गहरा धक्का लगा।
उद्धव बनते गए मज़बूत
इसी दौरान उद्धव पार्टी में मज़बूत होते गए और 2003 में उन्हें शिवसेना का कार्याध्यक्ष बना दिया गया। यह प्रस्ताव राज ठाकरे की तरफ़ से ही आया, लेकिन दिल से वो इसके लिए तैयार नहीं थे। कहा जाता है कि यह बालासाहेब का फैसला था, और शायद बेटे के लिए उनका मोह भी।
दूरियां बढ़ती गईं
इसके बाद दोनों के बीच टकराव खुलकर सामने आने लगा। राज के समर्थकों को चुनाव में टिकट कम मिलने लगे, बड़े फैसलों से उन्हें दूर रखा जाने लगा। जवाब में राज के लोग उग्र हो गए। एक तरफ उद्धव ‘मी मुंबईकर’ अभियान चला रहे थे, दूसरी ओर राज के समर्थकों ने उत्तर भारतीय परीक्षार्थियों पर हमला कर दिया।
शिवसेना से अलगाव
27 नवंबर 2005 को राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़ दी। उन्होंने कहा कि पार्टी अब क्लर्क चला रहे हैं और उनके खिलाफ बालासाहेब के कान भरे जा रहे हैं। इसके अगले ही दिन ‘सामना’ में उनके खिलाफ तीखा संपादकीय छपा।
मनसे का गठन
कुछ हफ्तों बाद राज ने अपनी नई पार्टी बनाई — महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS)। उन्होंने मराठी अस्मिता की बात फिर से शुरू की और उत्तर भारतीयों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। कई जगह हिंसा भी हुई, जिससे हजारों लोगों ने महाराष्ट्र छोड़ दिया।
2009 चुनाव में असर
राज की पार्टी ने 13 सीटें तो जीतीं, लेकिन असल असर शिवसेना पर पड़ा। कई सीटों पर MNS की वजह से शिवसेना हारी और कांग्रेस-एनसीपी को फायदा हुआ।
परिवार और सियासत
2012 में बालासाहेब के निधन के बाद उद्धव को पार्टी संभालनी पड़ी। उन्होंने एक इंटरव्यू में राज को साथ आने का इशारा दिया, लेकिन राज ने इसे ठुकरा दिया। हालांकि, पारिवारिक रिश्ते बरकरार रहे।
2019 में जब उद्धव ने अपने बेटे आदित्य को चुनाव में उतारा, तो राज ने उनके खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया। लेकिन जब राज ने अपने बेटे अमित को 2024 में उतारा, तो उद्धव ने मुकाबले में उम्मीदवार खड़ा कर दिया — और अमित चुनाव हार गए।
आज की स्थिति
अब दोनों नेताओं की सियासत मुश्किल दौर में है। उद्धव ठाकरे अपनी पार्टी के नाम और चुनाव चिन्ह खो चुके हैं, जबकि राज की पार्टी के पास कोई विधायक या सांसद नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है — क्या दोनों भाई एक साथ आ सकते हैं?
हो सकता है कि महाराष्ट्र की राजनीति का अगला अध्याय यही हो।
