मंदिर पुजारी की नियुक्ति में जाति या वंश का कोई महत्व नहीं, हाई कोर्ट का निर्देश
Temple Priest : केरल उच्च न्यायालय ने हाल ही में मंदिरों में पुजारियों की नियुक्ति से संबंधित एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। इस फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि किसी भी व्यक्ति को केवल जाति या वंश के आधार पर पुजारी बनने का अधिकार नहीं है, और ऐसी जाति या वंश-आधारित नियुक्ति भारत के संविधान में संरक्षित धार्मिक प्रथा नहीं मानी जा सकती। इस फैसले का आधार इस बात पर केंद्रित था कि मंदिरों में पुजारियों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर जो परंपराएं या नियम बनाए गए हैं, वे संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते।
यह मामला त्रावणकोर देवस्वोम बोर्ड (टीडीबी) और केरल देवस्वोम भर्ती बोर्ड (केडीआरबी) द्वारा आयोजित अंशकालिक मंदिर पुजारियों की भर्ती प्रक्रिया से संबंधित था। इन संस्थाओं ने थंथरा विद्यालयों के माध्यम से पुजारियों की भर्ती की प्रक्रिया शुरू की थी, जिसमें लगभग 300 पारंपरिक थंथरी परिवार शामिल हैं। इन परिवारों का मानना था कि मंदिर पुजारियों की नियुक्ति केवल वंशानुगत गति से ही होनी चाहिए, और इस प्रक्रिया को चुनौती देने वाली याचिका हाई कोर्ट में दायर की गई थी।
याचिका में यह तर्क दिया गया था कि मंदिर पुजारियों की नियुक्ति के लिए योग्यता निर्धारित करने का अधिकार केवल धार्मिक संस्थानों का है, और सरकार या संबंधित बोर्ड का नहीं। साथ ही, यह भी कहा गया कि पुजारियों की नियुक्ति केवल धार्मिक ग्रंथों, आगम और तंत्र जैसी प्रामाणिक धार्मिक मान्यताओं के आधार पर ही होनी चाहिए। परंतु, कोर्ट ने इन तर्कों को खारिज कर दिया और कहा कि यह जाति या वंश के आधार पर नियुक्ति का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह एक आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं है। कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसी नियुक्तियों का उद्देश्य वंशानुगत विशेषाधिकार को बनाए रखना नहीं है, बल्कि यह मंदिरों के परंपरागत धार्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा है।
न्यायालय ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि वर्तमान नियम और प्रक्रिया योग्यता और पात्रता के आधार पर ही नियुक्ति सुनिश्चित करते हैं। इसमें कहा गया कि मंदिरों में पुजारियों की नियुक्ति का पूरा तरीका बहुत ही कठोर और पारदर्शी है। योग्यता परीक्षा, धार्मिक प्रशिक्षण, और अंतिम चयन समिति की समीक्षा के बाद ही उम्मीदवारों का चयन किया जाता है। इस प्रक्रिया में उम्मीदवारों की धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने की क्षमता और उनकी योग्यता का मूल्यांकन किया जाता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि मंदिर के पुजारी के रूप में नियुक्ति पूरी तरह से योग्यता और धार्मिक प्रशिक्षण के आधार पर ही होती है।
कोर्ट ने यह भी माना कि थंथरा विद्यालयों के माध्यम से पुजारियों की भर्ती प्रक्रिया एक संरक्षित और पारदर्शी प्रक्रिया है, जिसमें योग्यता के साथ-साथ धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने की क्षमता भी जानी जाती है। साथ ही, इस प्रक्रिया को संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत धार्मिक संप्रदाय के स्वायत्तता के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि समाजम नामक संस्था का दावा कि सदस्यता केवल ब्राह्मण परिवारों तक ही सीमित है, भी इस मामले में कोई आधार नहीं है। यह संगठन धार्मिक परंपराओं और वंशानुगत परंपराओं का पालन कर रहा है, लेकिन यह सभी के मंदिर पुजारियों की नियुक्ति का आधार नहीं बन सकता।
हाई कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जाति या वंश के आधार पर पुजारियों की नियुक्ति को आवश्यक धार्मिक प्रथा नहीं माना जा सकता, और ऐसी परंपराएं संविधान के तहत संरक्षण प्राप्त नहीं हैं। कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए यह भी कहा कि धार्मिक अनुष्ठानों, योग्यता, और पारदर्शी प्रक्रिया के आधार पर मंदिरों में पुजारियों की नियुक्ति पूरी तरह से वैध है। इस फैसले से यह संदेश भी गया है कि धार्मिक संस्थानों को अपनी परंपराओं का पालन करने का अधिकार है, लेकिन यह अधिकार संविधान के नियमों और प्रावधानों के अनुरूप ही होना चाहिए।



