झेलम किनारे की हाउसबोट्स: रुखसाना की कहानी और कश्मीर की बदलती पहचान

श्रीनगर : झेलम किनारे बैठी रुखसाना (बदला हुआ नाम) की जिंदगी कश्मीर की उन हाउसबोट्स की तरह है, जो कभी शान और सुकून का प्रतीक थीं, लेकिन अब जर्जर होकर एक दर्दनाक हकीकत बयां करती हैं। लगभग 15 साल की रुखसाना बताती है, “मेरी सहेलियां अच्छे कपड़े पहनती हैं, घूमती हैं, मर्जी का खाती हैं। उनका अपना घर है। मैं इससे निकलना चाहती थी।”
रुखसाना का जन्म झेलम किनारे एक हाउसबोट में हुआ और शायद उसकी जिंदगी का अंत भी वहीं हो। कभी मेहमानों से भरी रहने वाली इन नावनुमा होटलों में अब मुश्किल से लोग आते हैं। ज़रूरतों को पूरा करने की चाहत में रुखसाना भटक गई, और उसकी यह पीड़ा कश्मीर की हकीकत बयां करती है।
हाउसबोट्स का इतिहास
कश्मीर में हाउसबोट्स की शुरुआत 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश राज में हुई। अंग्रेजों को यहां जमीन लेने की अनुमति नहीं थी, तो उन्होंने झील और नदी पर लकड़ी के घर बनवाने शुरू किए। इनमें रसोई, बैठक और बेडरूम तक मौजूद रहते थे।
क्वीन्स लिली और न्यू बकिंगघम जैसे नाम उस दौर की शाही कहानियां कहते हैं। आजादी के बाद अंग्रेज चले गए, मगर हाउसबोट्स कश्मीरी कारीगरों की पहचान बन गईं।
बदलते समय में हाउसबोट्स की स्थिति
समय के साथ झेलम की खूबसूरती फीकी पड़ गई। डल झील पर सफाई, सुरक्षा और आधुनिक सुविधाएं ज्यादा मिलने लगीं। पर्यटक झेलम से दूर होकर डल की ओर खिंचने लगे।झेलम की हाउसबोट्स अब अपनी जर्जर हालत और संघर्ष की कहानियों के साथ खड़ी हैं।
रुखसाना की तरह सैकड़ों परिवार झेलम किनारे हाउसबोट्स में रहते हैं। कभी पर्यटन और शाही ठहराव की पहचान रही ये नाव-घर आज गरीबी, उदासी और बदलते वक्त की निशानी बन चुकी हैं।