गुरेज घाटी: LOC के पास दर्द शिना समुदाय की संस्कृति और संघर्ष की कहानी
श्रीनगर : श्रीनगर से लगभग 140 किलोमीटर दूर स्थित गुरेज घाटी, कश्मीर के सबसे संवेदनशील इलाकों में से एक है। किशनगंगा नदी के किनारे बसी यह घाटी, जिसे कभी दर्दिस्तान कहा जाता था, दशकों तक दुनिया से कटी रही। बर्फबारी और सुरक्षा बंदिशों ने यहां के लोगों को बाहरी दुनिया से अलग रखा।
गुरेज की आबादी करीब 40 हजार है। यहां के लोग खुद को कश्मीरी नहीं, बल्कि गुरेजी और दर्द शिना समुदाय का हिस्सा मानते हैं। बुजुर्ग गुलाम मोहम्मद, जिनकी उम्र 100 साल से ज्यादा मानी जाती है, बताते हैं कि 1947 के कबीलाई हमले ने इस इलाके की तक़दीर बदल दी थी। भारतीय सेना की मदद से हमले को रोका गया और तभी से स्थानीय लोग और सेना साथ-साथ खड़े हैं।
महिलाओं की जिंदगी यहां बेहद कठिन है। सर्दियों में जब छह महीने तक घाटी बर्फ से ढकी रहती है, तो महिलाएं रोजाना लकड़ी और घास के गट्ठर ढोती हैं। एक स्थानीय महिला शबनम बताती हैं कि “छह महीने तक घर से बाहर नहीं निकल सकते। खाना पकाना, पानी लाना और जलाऊ लकड़ी जुटाना सब औरतों का काम है।”
स्वास्थ्य सुविधाएं बेहद सीमित हैं। दावर हेडक्वार्टर में एक छोटा अस्पताल है, लेकिन बड़े इलाज के लिए बांदीपोरा जाना पड़ता है। सर्दियों में सड़कें बंद हो जाने पर सेना के हेलीकॉप्टर ही आखिरी उम्मीद बनते हैं।
बावजूद इसके, गुरेज की संस्कृति और भाषा आज भी जीवित है। स्थानीय रेडियो पर दर्द शिना भाषा में प्रसारण होते हैं और कुछ लोग अपने घरों को म्यूजियम में बदलकर इस सभ्यता को बचाने की कोशिश कर रहे हैं।
युवाओं में पलायन की प्रवृत्ति बढ़ रही है, लेकिन फिर भी गुरेज घाटी का हर कोना संघर्ष, संस्कृति और सरहद की कहानियों को सहेजे हुए है।



